हमारे बारे में


  • श्रीमद्भगवद्गीता की मूल प्रतियों के अतिरिक्त विभिन्न विद्वानों के द्वारा कृत भाष्यों, तथा इन पर विभिन्न शोधकर्ताओं, विद्वानों, विश्वविद्यालयों आदि द्वारा सम्पन्न अनुसंधान कार्यो आदि का संकलन कर लाइब्रेरी की स्थापना एवं प्रकाशन ।

  • श्रीमद्भगवद्गीता के विशेषज्ञ विद्वानों का चयन तथा उनके माध्यम से अनुसंधान कार्य का सम्पन्न कराना।

  • श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित नाटिका का निर्माण एवं प्रदर्शन।

  • रासलीला के संरक्षण, प्रदर्शन, व मंचन आदि पर अनुसंधान कार्य की योजना का संचालन।

  • प्रशिक्षण में श्रीमद्भगवद्गीता को कंठस्थ कराये जाने एवं गीतापाठ करने का प्रशिक्षण कार्य।

  • रासलीला परम्परा को अकादमिक रूप से प्रशिक्षण दिये जाने की योजना।

  • श्रीकृष्ण एवं गीता से सम्बन्धित अन्य संस्थानों एवं निजी संग्रहों की सामग्री का संकलन एवं डिजिटलाइजेशन कर वेब पोर्टल तैयार करना, जिससे यहाँ आने वाले शोधार्थियों एवं संस्कृति प्रेमियों को एक ही पटल पर सामग्री सुलभ हो सके ।

  • श्रीकृष्ण एवं गीता के सम्बन्ध में ग्रामीण क्षेत्रों में यत्र-तत्र बिखरी लोक पारम्परिक विधाओं का सर्वेक्षण, संकलन तथा डॉक्यूमेंन्टेशन करना ।

  • श्रीकृष्ण और गीता से सम्बन्धित व्याख्यान, संगोष्ठियों, वर्कशॉप, प्रदर्शनी के आयोजनों के अतिरिक्त सम्बन्धित विषय पर साहित्य की विभिन्न विधाओं में नवीन नाट्य, सांगीत आदि तैयार कराकर प्रदर्शित करना ।

  • सम्बन्धित विषय पर विभिन्न विद्वानों एवं कलाकारों से सम्पर्क कर उनके सहयोग से बृज संस्कृति में गीता एवं श्रीकृष्ण कथा का समन्वय दर्शाने वाले नव वृत्तचित्र आदि का निर्माण एवं प्रदर्शन ।

  • श्रीकृष्ण और गीता के प्रचार-प्रसार, अध्ययन, शोध तथा संरक्षण और प्रदर्शन से सम्बन्धित वे सभी कार्य करना जिसके माध्यम से सामान्य जन के अतिरिक्त विषय के जिज्ञासु एवं शोधार्थी लाभान्वित हो सकें।

  • श्रीकृष्ण व गीता पर आधारित मौलिक तथा नवीन प्रसंगों का लेखन ।

  • समिति के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु शोधवृत्ति पुरस्कार, शोध-पत्रिका प्रकाशन आदि करना।

  • उद्देश्यों की सम्पूर्ति हेतु सरकारी अनुदान, उपहार, सहयोग, दान आदि धनराशि, जमीन अथवा जो भी हो समिति के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्हें स्वीकार करना ।

  • समिति के उद्देश्यों हेतु समान कार्य करने वाले सरकारी, गैर सरकारी, देशी-विदेशी संस्थाओं से सहयोग प्राप्त करना ।

  • रासलीलाओं एवं ब्रज की संस्कृति की अन्य विधाओं का समाजगायन, धुपदगायन, संगीत/नौटंकी, भजन आदि समस्त विधाओं हेतु सुचितापूर्ण स्क्रिप्ट तैयार करना ।

  • दो प्रकार की रासलीलाऐं तैयार की जायेंगी, प्रथम- 07 दिन में सम्पूर्ण रासलीला के मंचन हेतु प्रशिक्षण एवं मंचन तथा द्वितीय- 03 घण्टे में सम्पूर्ण रासलीला के मंचन हेतु प्रशिक्षण एवं मंचन ।

  • स्कूलों के लिये विशेष रूप से रासलीला पाठ तैयार करना, प्रतियोगिताएं कराना तथा विजयी रासलीला दलों को देश के प्रमुख स्थलों का भ्रमण कराना तथा विदेश के प्रमुख देशों का सांस्कृतिक भ्रमण कराया जाना ।

  • ब्रज में श्री कृष्ण जी से सम्बन्धित लीलाओं के शोध सर्वेक्षण एवं दस्तावेजीकरण का कार्य ।

  • अन्य प्रदेशों की रासलीलाओं के संरक्षण का कार्य।

  • कृष्ण सर्किट पर विशेष कार्य जिससे सांस्कृतिक पर्यटन को प्रोत्साहन प्राप्त हो सके।

  • अन्य प्रदेश की रासलीलाओं के संरक्षण, प्रोत्साहन, दस्तावेजीकरण हेत विशेष कार्य योजना ।

  • मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण जन्मोत्सव एवं अन्य आयोजनों के सम्बन्ध में विशेष भूमिका ।

  • स्कूलों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि के सांस्कृतिक क्रियाकलापों में रासलीला के मंचन की व्यवस्था।

  • श्री कृष्ण संग्रहालय की स्थापना।

  • अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर रासलीला व श्री कृष्ण लीला से सम्बन्धित लोक विधाओं के विस्तार का डाटाबेस तैयार करना ।

  • सम्भागीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर श्री कृष्ण महोत्सव का आयोजन।

  • विदेश में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिवर्ष एक अन्तर्राष्ट्रीय रासलीला महोत्सव का आयोजन।

  • लीला एवं अन्य सांस्कृतिक विधाओं के प्रशिक्षकों, कलाकारों हेतु रोजगारपरक योजनाओं का संचालन।

  • विदेश मंत्रालय के भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सहयोग से प्रदेश की रासलीलाओं का विदेश में मंचन ।

  • गीता पारम्परिक लीलाओं व अन्य लोक विधाओं की पाण्डुलिपियों, छायाचित्रों आदि का संग्रह एवं उनका प्रकाशन।

  • गीता, लीलाओं एवं अन्य लोक विधाओं पर डाक्यूमेंन्ट्री फिल्म का निर्माण।

  • देश की विभिन्न रासलीलाओं का दस्तावेजीकरण, प्रदर्शन एवं प्रकाशन।

क्या है भगवद् गीता ?


श्रीमद् भगवद् गीता की महिमा असीम है, भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निर्झरित शब्दों को महर्षि वेदव्यास द्वारा अठारह अध्यायों में सजाया गया है, इसके अध्ययन मात्र से माया कृत प्रदूषण की कारा स्वतः निर्मलता को धारण कर लेती है। इस उपनिषद रूपी गंगाजल का सेवन मनव मात्र को आत्म दर्शन के योग्य बना देता है। गीता का सिद्धान्त है कि कर्म करने वाले केवल कर्म करने में ही अपना अधिकार माने, फल के लिए उतावले न हों। निष्काम कर्म योग के अभ्यास से जन्म बन्धन से मुक्त होकर तुम अनामय पद को प्राप्त कर लोगे।

सगुण ब्रह्म की प्राप्ति केवल अनन्य भक्ति से ही होती है, किन्तु विश्व रूप दर्शन भगवान की कृपा से ही सम्भव है। व्यवहार और परमार्थ के लिए जितनी विधाएँ अपेक्षित हैं वे सभी गीता में उपलब्ध हैं। गीता में स्वयं ही अपने लिये श्रीकृष्ण ने वेदान्तकृत और वेदवेद्य कहा है। अर्जुन के समक्ष साकार रूप में खड़े वेदान्त वेद्य तत्व श्रीकृष्ण ने उसे कहा, अर्जुन! तुम मुझे इन आंखों से नहीं देख सकते, मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ, उससे मेरे ऐश्वर्य योग को देखो। यह ऐश्वर्य योग ही अघट घटना पाटव है।

आत्म संयम से योग सिद्ध होता है, यहाँ श्रीकृष्ण का कथन है कि इसके लिए स्वाधीन चित्त की आत्मा में स्थिति और भोगों के प्रति निरपेक्षता आवश्यक है। इन सब तात्विक संदर्भों के कारण ही गीता को दुग्ध का सारभूत नवनीत कहा गया है। इसीलिए महापुरुषों ने गीता का तात्पर्य भक्ति प्रपत्ति में ही अन्तर्हित माना है। गीता का यह श्लोक देखें-


मन्मना भव मदभक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामे वैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

(गीता 18/65)


अर्जुन तुम मुझ में ही चित्त लगाओ, मेरा भजन करो, मेरा यजन करो, मुझे ही नमस्कार करो, चूँकि तुम मेरे प्रिय हो, इसलिये मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि ऐसा करने पर तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।


क्या है भगवान श्री कृष्ण की रासलीला ?


द्वापर के उत्तरार्द्ध में आभीर कन्याओं के द्वारा शरद पूर्णिमा के दिन एक नृत्य प्रचलित था। जिसे हल्लीसक नृत्य कहते थे। इस नृत्य में एक पुरुष व शेष सब आभीर वधूटियाँ प्रतिभाग करती थीं। उस समय का जो अति बलिष्ठ पुरुष होता था उसी का चयन वह नृत्यागंना समूह स्वयं प्रशान्त चित्त से करता थीं।

जब गोवर्द्धन-धारण लीला हुई तो उन कन्याओं ने देखा कि श्रीकृष्ण ने कनिष्ठा पर गोवर्द्धन पर्वत को सहज ही उठा लिया है तो उन्होंने समझ लिया कि श्रीकृष्ण से अधिक बलशाली इस समय कोई नहीं है। मन ही मन उन गोप वधुओं ने हल्लीसक नृत्य के लिये आमंत्रण किया कि आने वाली शरद पूर्णिमा की उज्ज्वल निशा में श्रीकृष्ण के साथ नृत्य होगा। श्रीकृष्ण ने भी उनकी मनोभिलाषा को समझ लिया।

शरद ऋतु का आगमन हुआ, श्रीवृन्दावन के यमुना पुलिन की वह मनोरम वनस्थली, कुण्ड, सरोवर, वन राजियाँ, खिले हुये कमलों के पराग से पूर्ण हो गये, सुरभित समीर के साथ, तट भूमि भंवरों के गुंजार से कुंज-कानन की शोभा अद्वितीय हो रही थी। उस अनुपम योग में बांसुरी की मधुर स्वर लहरी ने सभी को पुलकित कर दिया। आत्माराम श्रीकृष्ण गोपियों के साथ नृत्य करते हैं, गोपियाँ भी उस अपूर्व नृत्य में आनन्द मग्न हो जाती हैं, और उनके मन में मान उदय होने लगता है। मान को तिरोहित करने के लिये भगवान यकायक अन्तध्र्यान हो जाते हैं। भगवान को अपने समीप न देखकर अत्यन्त दुखी होकर श्रीकृष्ण के विगत चरित्र का अनुकरण करने लगती हैं। श्रीकृष्ण पुनः प्रगट होकर गोपियों के संग नृत्य करते हैं। ”बहुरि स्याम संग रास रचायौं।“ यहीं से ब्रज के इस जन प्रिय लोक मंच रासलीला का सूत्रपात होता है।

श्रीमद् भागवत के दशम स्कन्ध में 29 अध्याय से 33 अध्याय तक श्रीरास पंचाध्यायी रूपी रस का वर्षण किया गया है। रासलीला श्रीकृष्ण की समस्त लीलाओं में व्यापक और श्रेष्ठ कही जा सकती है, इसीलिए इसकी नाटकीयता शैली में अनुकरण की परंपरा आज तक ब्रज की लोक नाट्य शैली में रंग मंच का आकर्षण बनी हुई है।

इस प्रकार रास नृत्य का लोक धर्मी रूप अति प्राचीन परम्पराओं से प्राप्य है। जो अब प्रायः लुप्त होने की स्थिति में है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज यह उस अप्राप्य परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहा है। नाट्य शास्त्र में रास के लोकधर्मी नाट्य रूप को ही अवगत कराया है।

जब श्रीकृष्ण के साथ मिलकर गोपियों ने यह नृत्य किया तो इसी को रास कहा जाने लगा क्योंकि रस राज शृंगार रस के आदि देव श्रीकृष्ण ही हैं, इसलिये कालान्तर में वेत्ता विद्वानों ने इसी को रसाना समूहो रासः कहकर परिभाषित किया जो सर्व मान्य परिभाषा हुई।



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